पुराण और प्राचीन साहित्य - भक्तिकाव्य धारा
Authors: Dr Chiluka Pusphalata
DOI: https://doi.org/10.5281/zenodo.1400745
Short DOI: https://doi.org/gfkzw5
Country: India
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Abstract:
सामान्यत: ' पुराण ' शब्द का अर्थ प्राचीन कथाओं के संग्रह से समझा जाता है | अमरकोशकार ने पुरातन और चिर नवीन स्वरूप की ओर संकेत करते हुए कहा है -
पुराणे प्रतनप्रत्न पुरातन चिरन्तनम् |
प्रत्यगोअभिनवो नव्य नवीनों नूतनोंनव: ||
कतिपय पुराणों में भी शब्द की परिभाषा देते हुए कहा गया है -
सर्गश्च प्रतिसर्गश्त वंश मन्वन्तराणि च |
वंशानुचरितं चैन पुराण पंचलक्षणम् ||
अर्थात् जिस ग्रन्थ में सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वनतर तथा वंशानुचरित का वर्णन हो उसे पुराण कहा जाता है | किन्तु पुराणों में मात्र सर्ग, प्रतिसर्ग, अथवा राजवंशावली का वर्णन ही नहीं है वरन हमारी संस्कृति, हमारा सम्पूर्ण लौकिक एवं धार्मिक जीवन सन्निहित है |
भारत मुख्यतः धर्मप्रधान देश है | अतः तद्नुरूप प्राचीन भारतीय साहित्य का विकास भी धार्मिक रूप में हुआ है | इसके अतिरिक्त साहित्यकों का दृष्टिकोण आदेशात्मक था | एक ओर उनके जीवनदर्शन का एक रूप उनकी धर्मसाधना थी, दूसरी ओर लौकिक जीवन में भी उदात्त मानवीय गुणों को ही महत्ता मिली थी | परिणामस्वरूप संस्कृत साहित्य में केवल उदात्त चरित्र ही नाटक तथा महाकाव्य के नायक बन सकते थे| संस्कृत साहित्य में पुराणों की कथाएं को माध्यम बना कर नाटक तथा काव्य ग्रन्थ रचना की व्यापक परम्परा वर्तमान है |
Keywords: आदिकाल साहित्य, भक्तिकाव्य धारा, रीतिकालीन प्रवृत्तियों
Paper Id: 205
Published On: 2018-08-16
Published In: Volume 6, Issue 4, July-August 2018