दल-बदल कानून की प्रासंगिकता
Authors: लालाराम
Country: India
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Abstract:
भारत में दल बनाना, दल - परिवर्तन, टूट, विलय, विखराव ध्ुा्रवीकरण आदि राजनीतिक दलों की कार्यषैली के महत्वपूर्ण रुप है। सता की लालसा तथा भौतिक वस्तुओं की लालसा के कारण राजनीतिज्ञ अपना दल छोड़कर दूसरे दल में शामिल हो जाते है या नया दल बना लेते है ।
चौथे आम चुनाव (1967) के बाद दल - परिवर्तन में काफी तेजी आयी । इस घटना ने केन्द्र तथा राज्य दोनोें में राजनीतिक अस्थिरता पैदा की तथा दलों में विघटन को बढावा मिला। इसी बीच हरियाणा के विधायक गयालाल ने एक दिन में तीन पार्टियाँँ बदली थी। इस घटना के कारण दल-बदल जैसे कानून की आवष्यकता महसूस की जाने लगी।
52 वे संविधान संसोधन अधिनियिम 1985 द्वारा सांसदो तथा विधायकों को एक राजनीतिक दल से दूसरे में दल - परिवर्तन के आधार पर निरर्हता के बारे में प्रावधान किया गया है । इस हेतु संविधान के चार अनुच्छेदों (101,102,190,191) में परिवर्तन किया गया तथा संविधान में एक नयी अनुसूची (दसवीं अनुसूची) जोड़ी गई। इस अधिनियम को सामान्यतया दल-बदल कानून कहा जाता है।
10वीं अनुसूची के प्रावधानों के अनुसार कोई सदस्य अपनी स्वेच्छा से राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता हैै या वह अपने राजनितिक दल के व्हिप के विपरीत मत देता है, या मतदान में अनुपस्थित रहता है, तथा राजनीतिक दल उसे पन्द्रह दिनों के भीतर क्षमादान नही ंदेता है तो भी उसकी सदस्यता समाप्त मानी जावेगी। यदि कोई निर्दलीय सदस्य चुनाव जीतने के बाद किसी राजनीतिक दल की सदस्यता धारण कर लेता है तो भी उसकी संबंधित सदन की सदस्यता समाप्त मानी जाएगी तथा किसी सदन का नाम - निर्देषित सदस्य उस सदन की सदस्यता के अयोग्य हो जायेगा, यदि वह उस स
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Paper Id: 230734
Published On: 2024-07-02
Published In: Volume 12, Issue 4, July-August 2024
Cite This: दल-बदल कानून की प्रासंगिकता - लालाराम - IJIRMPS Volume 12, Issue 4, July-August 2024.